Sunday 11 May 2014

भगाणा में दलित उत्पीड़न और प्रतिरोध की प्रयोगशाला

अगर मैं यह कहूं कि भगाणा की हाल की घटना और वहां के पीड़ित दलितों का मामला महज सामाजिक नहीं है, बल्कि इसके सबसे अधिक राजनैतिक निहितार्थ हैं. तो शायद आपको अजीब भी लग सकता है. दलितों पर ताकतवर जातियों की ओर से हमेशा अत्याचार होते आए हैं, और यह सामाजिक ढांचे और उसकी बजबजाती गंदगी का मामला तो रहता ही है. लेकिन हरियाणा के हिसार के भगाणा गांव की घटना के व्यापक राजनैतिक जुड़ाव है. इस घटना के विरोध में भी हो रहे संघर्ष की राजनैतिक वजह है और इसकी जरूरत भी है.

 
जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करती भगाणा की महिलाएं
जंतर-मंतर पर भगाणा की बलात्कार पीड़िताएं
पिछले 23 मार्च को भगाना गांव की दो नाबालिग समेत चार दलित लड़कियों का अपहरण गांव के ही जाट युवकों ने कर लिया और बलात्कार किया था. इन पीडि़ताओं में दो नाबालिगों की उम्र 15 वर्ष और 17 वर्ष है तो दोनों बालिगों की उम्र 18 वर्ष है. घटना के बाद इंसाफ और पुर्नवास की मांग को लेकर पीडि़ताएं अपने परिजनों और गांव के करीब 90 दलित परिवारों के साथ दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना दे रही हैं.
पीडि़ताओं का आरोप है कि 23 मार्च की रात करीब 8 बजे जब वे शौच के लिए पास के खेतों में गई थीं तो पांच युवकों ने उन्हें जबरन चारपहिया गाड़ी में बिठा लिया और कुछ सूंघा कर बेहोश कर दिया. उन्हें होश आया तो उन्होंने खुद को अगले दिन पंजाब के भटिंडा रेलवे स्टेशन के किनारे पड़ा पाया. खुद की हालत से उन्हें पता चला कि उनके साथ रात में बलात्कार किया गया है.
लेकिन कहानी इतनी भर नहीं है. 17 वर्षीय बलात्कार की शिकार लड़की के पिता कहते हैं, ''इसी वर्ष जनवरी में गांव के सरपंच राकेश कुमार पंघाल ने उन्हें मारा-पीटा और बुरा अंजाम भुगतने की धमकी भी दी थी. वे राकेश के खेतों में ही काम करते थे. वे कहते हैं, मैं रात में खेतों में पानी देने के बाद थोड़ी देर के लिए सो गया था तो इससे नाराज होकर राकेश ने मारपीट की थी.”  उनका कहना है कि एसपी तक से गुहार लगाने के बाद भी कोई मामला दर्ज नहीं हुआ और ना ही कोई कार्रवाई की गई.
और इस तरह कहानी महज बलात्कार तक सीमित नहीं रहती. यह हरियाणा में दलितों के लगातर जारी उत्पीडऩ की कहानी बन जाती है.
 
हिसार मिनी सचिवालय पर धरने पर बैठे भगाणा गांव के दलित
हिसार मुख्यालय और बलात्कार पीड़ित प्रेतात्माएं
हरियाणा के हिसार के जिला मुख्यालय पहुंचते ही मुझे अहसास हुआ कि आप किसी भी शहर के कोर्ट, थाने या अन्य प्रशासनिक मुख्यालय चले जाइए आपको बलात्कार पीड़िताएं प्रेतात्माओं की तरह मंडराती मिल जाएंगी. जी हां, प्रशासनिक उदासीनता और लापरवाही से तंग, न्याय की आस लिए चक्कर काटती असंतुष्ट प्रेतात्माओं की तरह ही. और शायद प्रशासनिक अधिकारी भी उन्हें प्रेतात्माओं या अन्य जगह की प्राणी टाइप ही देखते हैं, जिनके साए से वे दूर रहना चाहते हैं. हिसार जिला मुख्यालय जहां डिप्टी कमिनश्नर और एसपी ऑफिस से लेकर कोर्ट तक मौजूद हैं, वहां पहुंचते ही मेरी मुलाकात डाबड़ा गांव की उस 17 वर्षीय दलित लड़की से हुई जिसके साथ 2012 में जाट युवकों ने सामूहिक बलात्कार किया था. इस घटना के बाद उसके पिता ने आत्महत्या कर ली थी. वह लड़की उस कोर्ट में एक 10 वर्षीय बच्ची को लेकर आई थी, जिसके साथ किसी अधेड़ शख्स ने बलात्कार किया था. इसी तरह वह अपनी ही तरह दरिंदगी की शिकार लड़कियों के लिए आवाज उठाती है और भगाना गांव में बलात्कार शिकार लड़कियों के आंदोलन में उतरी हुई है.
और वहीं थोड़ी देर में मुझे एक और बलात्कार शिकार युवती मिल जाती है जिसके साथ एक जाट युवक ने बलात्कार किया था लेकिन अब तक उसे सजा न मिल पाई है और इसकी वजह यह थी कि उस आरोपी युवक का मामा एक जज है. जाहिर है अपने रूतबे से उसने तमाम तिकड़मों से युवती को ही टॉर्चर कराया. यहां तक कि पुलिस ने इस युवती को गिरफ्तार कर बुरी तरह से टॉर्चर किया था जिसकी वजह से वह विक्षिप्त-सी हो गई थी. अब वह इंसाफ के लिए अब तक लड़ तो रही है लेकिन उसके चेहरे पर अदालतों-प्रशासनिक ढांचों के प्रति वितृष्णा साफ नजर आ रही थी. हां, यह ध्यान देने वाली बात जरूर थी कि इन दोनों लड़कियों ने हार नहीं मानी और न ही किसी तरह की झिझक के भाव के साथ दिखाई पड़ी, जैसा कि अमूमन पीड़िताओं को प्रदर्शित करने की कोशिश की जाती है. साफ कहूं तो बलात्कार पीड़ितों को लाचार या मुंह न दिखाने लायक  मानने वाले समाज के ठेकेदारों के मुंह पर वे कड़े तमाचे की तरह मुझे दिखाई पड़ीं.

 
भगाणा गांव कि विवादित सामुदायिक जमीन
भगाणा वाया हिसार
मुख्यालय की छत के नीचे ही भगाणा गांव के वे दलित भी मिल गए जो दो साल से वहां धरने पर बैठे हुए हैं. भगाना गांव 2012 में सुर्खियों में आ गया था जब सामुदायिक जमीन को लेकर यहां विवाद हुआ था. दलितों का आरोप है कि उन्होंने ग्राम पंचायत की जमीन पर बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर की मूर्ति लगाने और खेल के मैदान पर पट्टे देने की मांग के खिलाफ जाटों ने सामाजिक बहिष्कार कर दिया. उनकी धमकियों से तंग आकर 136 दलित परिवारों ने हिसार के मिनी सचिवालय में धरने पर बैठ गए और दिल्ली तक पैदल मार्च किया था. लेकिन उन्हें मिला कुछ नहीं.

हिसार के मिनी सचिवालय पर ये दलित परिवार आज भी अपने दिनचर्या की चीजों के साथ धरने पर बैठे हुए हैं. वहां धरने पर बैठे भगाना के 32 वर्षीय सतीश काजल बताते हैं, ''यहां अब भी हमें धरना देना पड़ रहा है. न तो प्रशासन और ना ही सरकार ने हमारी बात सुनी है.उनके अनुसार करीब 80 परिवार अब भी वहां डेरा जमाए हुए हैं. मैंने वहां करीब दर्जन भर लोगों को धरने पर बैठा पाया. सतीश बताते हैं कि अधिकतर लोग काम-काज (मुख्य रूप से मजदूरी या छोटी-मोटा काम) करने निकल जाते हैं और देर शाम लौटते हैं. इन परिवारों की महिलाओं और बच्चों ने आसपास के गांवों में अपने रिश्तेदारों के यहां शरण ले रखी है. कुछ परिवार गांव लौटे भी हैं तो लाचार होकर.


और प्रशासन यहां भला अलग कैसे हो सकता है
और प्रशासन और पुलिस का नजरिया भला यहां अलग कैसे होता. हिसार के पुलिस अधीक्षक शिवास कविराज से इस संबंध में मुलाकात के लिए उनके पीए से मिलना पड़ा. उनके पीए ने पहले ही अनऑफिसिअली जो बात बताई वह बिल्कुल महिला विरोधी पुरूष मानसिकता का बयान था. उन्होंने यह कहते हुए लड़कियों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की कि दरअसल एक आरोपी जाट युवक से एक पीड़िता का प्रेम-प्रसंग था और वह अपनी मर्जी से गई थी. बाकी तीन लड़कियां भी उसके साथ हो ली थीं. जाहिर है एक चाहे तरूण तेजपाल प्रकरण हो या हिसार जैसे कस्बों का मामला स्त्री की मर्जी की बात कह कर उसे ही कटघरे में खड़ा करने का रिवाज हमेशा से रहा है. एसपी शिवास कविराज का भी ठीक यही रवैया था, उन्होंने बताया, ''चीजों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है. वे बताते हैं कि गांव में लगातार पुलिस गश्त होती है.”  दो साल से जारी भगाणा के दलितों के धरने के बारे में पूछने पर भी वे यही कहते हैं, बैठे लोग गांव जाएं तो सही, हम उनके लिए पूरी सुरक्षा का बंदोबस्त कर देंगे.लेकिन जिस गश्त और सुरक्षा की बात वे कर रहे हैं वह तो प्रशासन ने दो साल पहले भी कहा था. फिर ऐसी घटनाएं कैसे जारी हैं. हालिया गैंगरेप की घटना के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ''मामले का बहुत ज्यादा राजनीतिकरण किया जा रहा है. हमने 24 घंटे के अंदर तीन आरोपियों और फिर दो दिन बाद ही बाकी दो आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया.पुलिस ने एक नाबालिग और एक बालिग किशोरी के साथ रेप की पुष्टि की है. चार किशोरियों का अपहरण और बलात्कार और दो दिन बाद एफआइआर दर्ज होना पुलिसिया सुरक्षा की बात पर सवाल तो खड़ा करता ही है.
दरअसल एसपी जिस राजनीतिकरण की बात कर रहे हैं, उसे क्लीयर करते हुए वह अनऑफिशिएली बसपा की ओर इशारा करते हैं. जाहिर है प्रशासन-सरकार और जाटों को ये बात चुभ रही है कि आखिर दलितों राजनैतिक जमीन कैसे मुहैया हो रही हैं.
वही हिसार के डिप्टी कमिश्नर एम.एल कौशिक भी इसी लकीर पर हैं. उन्होंने कहा ''बलात्कार को दलित-उत्पीडऩ से जोडऩा ठीक नहीं है. हर समुदाय में अपराधी तत्व के लोग होते हैं. पीडि़तों को मुआवजा दिया जा चुका है.भगाना के सामाजिक बहिष्कार के मुद्दे पर उन्होंने कहा '' मैं गांव का दौरा कर चुका हूं. गांव में बहिष्कार जैसा कुछ नहीं है.

एक पीड़ित परिवार का घर जहां अब ताला लटका है
उत्पीड़न की धर्मस्थली भगाणा में
प्रशासन ने सब कुछ सामान्य बताया लेकिन हिसार के करीब 20 किमी दूर भगाना गांव में माहौल की तल्खी साफ महसूस की जा सकती है. यहां पहुंचते ही महिलाओं को गले के नीच तक पूरा घूंघट किए देखा जा सकता है, जो यहां की सामाजिक रूप-रेखा की अनायास चुगली कर देते हैं. वहीं दलितों और जाटों के बीच यहां बोल-चाल भी दिखाई नहीं पड़ रहा था. उनके बीच बना फासला साफ महसूस हो रहा था. दलित परिवारों के धरने प्रदर्शन के खिलाफ जाट तल्ख हैं. यहां मामले का दूसरा पक्ष भी उभर कर सामने आता है. बलात्कार की शिकार किशोरियों के खिलाफ ये लोग उसी तरह के स्त्री-विरोधी आरोप लगा रहे हैं जैसा कि खाप पंचायतों का होता है. गांव के फूल सिंह हों या सूरजमल, दलवीर सिंह या नफे सिंह मैंने दर्जन भर जाटों से बातचीत की और सभी पीडि़ताओं को ही दोषी ठहराते नजर आए. वहां के जाट फूल सिंह पूछते ही फट पड़ते हैं, “ वे अपनी मर्जी से गईं थी कोई जबरदस्ती नहीं ले गया था.वहीं यह ध्यान दिलाने पर कि दो किशोरियां तो नाबालिग थीं. लेकिन इसपर भी जाट समुदाय के लोगों का जवाब होता है, ''इससे क्या जी, सब मर्जी थी उनकी.गांव के जाट सामाजिक बहिष्कार की बात से भी इंकार करते हैं.
 
भगाणा का सरपंच राकेश
वहीं अपने ऊपर लगे आरोपों से गांव के सरपंच राकेश बेफिक्र नजर आते हैं. वे पूरी धमक के साथ कहते हैं, ''लगाने दीजिए आरोप, आरोप से क्या होता है. पुलिस जांच कर रही है. वे दावा करते हैं ''हम भी तो मुख्यमंत्री तक जा सकते हैं.कृष्ण की बात पूछने पर वे कहते हैं, ''हां, मैंने उस समय दो-तीन थप्पड़ा मार दिया था क्योंकि वे खेतों के काम में लापरवाही बरत रहा था. लेकिन फिर हमारा समझौता हो गया था. जाहिर है कि उन्हें या यों कहें उनके जाट समुदाय को किसी प्रकार का डर नहीं है और उन्हें अपनी ताकत पर पूरा भरोसा है.

सामाजिक बहिष्कार की बात पूछने पर वे स्वीकार करते हैं, ''हां, जाटों ने अपनी सेफ्टी के लिए ही उस समय सामूहिक रूप से अपने खेतों में दलितों को काम देने या घास वगैरह ले जाने से मना कर दिया था. ताकि वे हमारे खेतों में आकर हमारे ही खिलाफ कोई आरोप न लगा दें. लेकिन अब ऐसा नहीं है.”  जाटों में इस बात को लेकर भी नाराजगी है कि आखिरी दलित परिवार धरना देने चले क्यों जाते हैं. एक जाट धर्मवीर सिंह उलाहना देते हैं, ''सरकार उन्हें मुआवजा दे देती है इसी वजह से वे धरना करते हैं. सरकार ने उनका मन बढ़ाया है. जाहिर है यहां की फिजाओं में नफरत की बू बरकरार है.
 
भगाणा में एक दलित परिवार
गांव के दलितों का आरोप भी कायम है. वे थोड़े झिझके या हो सकता है जाटों की डर की वजह से उनमें झिझक मौजूद हो. पर जैसे-जैसे उन्हें लगा कि उनकी बात सुनने कोई आया है तो वे सब अपनी पीड़ा बयान करने लगते हैं. 22 वर्षीय दलित सुरेंद्र बताते हैं, ''जाटों ने हमसे बातचीत, खेतों में काम देना, मंदिरों में जाने देना सबकुछ बंद कर दिया था जो अब तक कायम है. जो जाट हमसे बता करेगा उस पर 1,100 रू. का जुर्माना लगाने की बात कही गई है.”  इनका घर विवादित सामुदायिक जमीन के सामने ही है. बगल में ही सुरेंद्र के चाचा का घर है जो 2012 के विवाद के बाद से ही घर छोड़ कर कहीं और रहने चले गए हैं.  प्रशासनिक सुरक्षा की बात पर 21 वर्षीय सुखबीर उपेक्षा से कहते हैं, ''पुलिस मीडिया के आने की की भनक पर ही गांव आ जाती है वरना कोई सुरक्षा नहीं रहती.

इस बार जिन दलित किशोरियों का बलात्कार हुआ है वे उन धानक नामक दलित समुदाय से हैं जिन्होंने उस समय गांव नहीं छोड़ा था और वहीं रह रहे थे. जाहिर है गांव में रहने की कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. मैं उनके घरों की ओर भी जाता हूं, जो जाटों के घरों से अलग बसे हुए दलितों के मोहल्ले में है. यहां पीड़ित लड़कियों के घर के बाहर ताला लटकता नजर आ रहा है.
आखिर में जाट महिलाओं से बात करने की कोशिश मैंने की तो उन्होंने कह दिया कि जाइए मर्दों से ही पूछिए. गांव से वापस लौटते हुए मैंने गांव की सीमा पर तैनात दो एएसआइ से बात की. पूछने पर उन्होंने बताया कि  वहां सुरक्षा के लिए पुलिस 24 घंटे तैनात है. लेकिन जैसा कि पहले एसपी मुझे बता चुके थे कि वहां गश्त करवाई जाती है. जाहिर है गश्त करवाने का यह मतलब नहीं कि 24 घंटे पुलिस तैनात रहती है.
 
भगाणा गांव के बाहर तैनात पुलिस
ताकतवर समुदायों के लिए हथियार है बलात्कार
डाबड़ा की पीडि़त किशोरी कहती है, ''जाट दलितों के प्रतिरोध को कुचलने, उन्हें सबके सीखाने और अपमानित करने लिए बलात्कार को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि दलित चुपचाप उनकी बाकत मानते रहें. और इस तरह वह बलात्कार को जरूरी तरीके से समझने का नजरिया देती है. यह अनायास भी नहीं है कि एनसीआरबी के मुताबिक पिछले तीन वर्षों में हरियाणा में दलितों का बलात्कार बढ़ा है.
 
मिर्चपुर के विस्थापित होकर तंवर के फार्म हाउस में एक दलित परिवार
प्रतिरोध की प्रयोगशाला वाया दलित राजनीति
जाहिर है कि जैसे-जैसे दलितों के प्रतिरोध की प्रयोगशाला बनती जा रही है, जाटों में नफरत बढ़ रही है. दूसरी ओर प्रशासन भी इसे स्थानीय राजनीति के लिए अनावश्यक बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की कोशिश बता रही है.
दरअसल यही वह मुख्य मुद्दा है जिस सबसे ज्यादा समझने की जरूरत है. हरियाणा की राजनीति में जाट ही केंद्रीय ताकत हैं. यहां के दोनों प्रमुख दलों का नेतृत्व जाटों के हाथ में है. हिसार में भी ठीक ऐसा ही है. जबकि अपने उत्पीड़न के खिलाफ दलितों को गैर-जाट केंद्रीयता वाले दल की जरूरत है. इसी वजह से वे अपनी अलग राजनैतिक जमीन की कोशिश कर रहे हैं. सपाट तरीके से देखने पर तो बस हमें लगेगा कि यहां हो रहा उत्पीड़न या जाटों में दलितों के प्रति आक्रमकता बस सामाजिक मुद्दा है. लेकिन नहीं यह राजैनितक मुद्दा भी है. यहां दलितों की एकजुट राजनैतिक जमीन तैयार करने में बसपा जुटी हुई है. और इसका ही असर देखने को मिल रहा है. दलितों का इन जगहों पर आंदोलन इसी दृष्टि से ही हो रहा है, और जहां तक मैं समझ पा रहा हूं, यह सब बसपा की जमीन तैयार करने की कोशिश भी है. यह यों ही नहीं था कि एसपी भी इशारों में ही बसपा को जिम्मेदार ठहरा रहे थे और गांव का सरपंच भी बसपा पर ही आरोप लगा रहा था कि लड़कियां अपनी मर्जी से जाट युवकों के साथ गई थीं, लेकिन जिस दिन (25 मार्च) को बसपा की रैली हिसार में हुई, उसके बाद ही लड़कियों और उनके परिजनों को भड़का कर एफआइआर दर्ज कराई गई और उन्हें दिल्ली ले जाया गया. जाहिर है प्रशासन, सरकार और जाटों को यह कतई रास नहीं आ रहा है कि दलितों की अपनी कोई मजबूत जमीन तैयार हो.

तंवर के फार्महाउस में मिर्चपुर के दलित
   मिर्चपुर आंदोलन समेत दलितों के उत्पीडऩ के खिलाफ कई आंदोलनों के अगुआ और इस बार भी पीडि़तों के दिल्ली तक लाने वाले सर्व समाज संघर्ष समिति के अध्यक्ष वेदपाल सिंह तंवर कहते हैं, ''वे मनुष्य को मनुष्य नहीं मानते, अधिकार की बात तो दूर है. यह लड़ाई इसी अधिकार की है.  2010 में मिर्चपुर कांड के पीडि़त कई दलित परिवारों ने अब तक इन्हीं के फॉर्म हाउस पर शरण ले रखी है.
हरियाणा में आखिर क्या वजह है कि दलितों को उत्पीडऩ बदस्तूर जारी है और वे उपेक्षा के शिकार है. तंवर इस ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ''दरअसल हरियाणा की राजनीति में जाटों का ही वर्चस्व है. राजनैतिक नेतृत्व इन्हीं के हाथों में है. इतना ही नहीं बल्कि राजनैतिक पार्टियां जाटों को किसी भी तरह नाराज नहीं करना चाहतीं.”  यही वजह है कि उनके लिए दलित मायने नहीं रख रहे. इसी बात की ओर ध्यान मेरा मिर्चपुर के दलितों ने दिलाया. मिर्चपुर में 2010 में सिर्फ इसी वजह से दलितों के घरों में आग लगा दी गई थी क्योंकि एक दलित के कुत्ते ने जाट को भौंक दिया था और जाट ने जब कुत्ते के मारना शुरू किया तो दलित ने मना किया था. उसकी वीभत्सता कैसे कोई भूल सकता है कि एक अपाहिज लड़की अपने बूढ़े पिता के साथ जलाकर मार दी गई थी. मैं तंवर जी के फॉर्म हाउस में भी गया जहां पलायन के शिकार मिर्चपुर के दलित अभी तक शरण लिए हुए हैं. एक-एक तंबू में दो-दो तीन-तीन परिवार गुजारा कर रहे हैं. देख के साफ लगा कि या तो वे तंवर की ओर से ही मुहैया करा दिए काम करते हैं या फिर बाहर मजदूरी करते हैं. और उनसे बात करने की कोशिश करते हुए मुझे साफ अहसास हुआ कि वे भी अपना दुखड़ा सुनाते-सुनाते उकता गए हैं. यहां बूढ़ी हो चुकी मां भी थीं जनिक बेटे को जाटों ने इसलिए मार दिया क्योंकि वह मिर्चपुर की घटना का महत्वपूर्ण गवाह था. उसकी पथराई आंखें और उदास आवाज सुनकर हम सन्नाटे में आ जाते हैं. वहां के दलित भी कहते हैं, ''हमें तो चुनाव के समय भी कोई पूछने नहीं आता, इस बार भी कोई नहीं आया. गांव में भी हम डर के नहीं जाते जिसकी वजह से इस बार भी इक्का-दुक्का लोगों को छोड़ हम वोट देने नहीं गए.”  इसी 10 मई को हिसार में लोकसभा का चुनाव संपन्न हुआ है.
भगाणा में एक जाट की हवेली के जास मकान

हिसार और भगाणा के आबादी भी कुछ ऐसा ही बयान करती है. हिसार में दलित आबादी करीब 22  फीसदी है. हालांकि हरियाणा में कुल मिलाकर करीब 19 फीसदी दलित हैं. जाहिर है दलितों की आबादी कम नहीं है. लेकिन उनके मुकाबले जाट कहीं अधिक हैं. भगाणा इसका उदाहरण है. यहां जाट आबादी करीब 60 फीसदी है तो दलितों की आबादी करीब 27 फीसदी. जाहिर है हरियाणा में जाट बहुसंख्यक हैं. इसलिए सरकार और पार्टियों के लिए वे ज्यादा जरूरी हैं. और राजनैतिक रसूख की वजह से प्रशासन भी उन्हीं के पक्ष में खड़ा रहता है.
यहां दलितों के प्रतिरोध में वेदपाल तंवर की बात भी जरूरी हो जाती है. इनके आलीशान मकान जाने पर आपको अहसास हो जाता है किसी रईस के यहां पहुंच गए हैं. वेदपाल तंवर के बारे में कहा जाता है कि इन्होंने खनन से काफी पैसा बनाया है. हिसार के आला प्रशासनिक अधिकारी भी उनके बारे में बताते हैं कि तंवर खनन माफिया रह चुके हैं. यह यों ही नहीं है कि वे इन आंदोलनों में दलितों न केवल अपने बूते शरण दे पा रहे हैं बल्कि एकजुट कर रहे हैं. उनका दूसरा पहलू यह भी है कि वे बीजेपी से होते हुए अब बीएसपी में हैं. इस 2014 के लोकसभा चुनाव में इनको यों ही नहीं भिवानी-महेंद्रगढ़ लोकसभा सीट के उम्मीदवार उतारा था. और मुझे यहीं लगता है कि बीएसपी के लिए दलितों की जमीन तैयार करना भी की उनकी इस सक्रियता की एक वजह है. बाकी उनके बारे में और भी किस्से हैं कि जाटों ने उनके बेटे की हत्या कर दी थी. जाहिर है कोई भी वजह हो, उनकी अपनी राजनैतिक जमीन तैयार करने की कवायद हो,  वे गैर-जाट राजनैतिक मोर्चा बनाने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं, और इसके लिए दलित उनके लिए काफी महत्व रखते हैं. लेकिन जो भी हो, यह शख्स मिर्चपुर से लेकर भगाणा जैसे तमाम दलित उत्पीड़न के खिलाफ के आंदोलन को सालों अगुआई कर रहा है, इस जरिए अगर हरियाणा में दलित भी अपनी राजनैतिक जमीन तैयार कर सकें या फिर राजनैतिक रूप से एकजुट हो सकें तो यह दलितों के अधिकारों की जीत होगी. और इसलिए हमें तमाम संदेहों के बावजूद उम्मीद करनी चाहिए कि यह दलित आंदोलन हरियाणा में बदलाव की एक बड़ी वजह बन सकता है.
 
तंवर के फार्म हाउस में मिर्चपुर का एक दलित परिवार
दिल्ली के रंग-ढंग में खलल पड़ेगा?
कहते हैं इंसाफ पाने के लिए दिल्ली तक गुहार या चोट करना जरूरी होता है. स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार की ओर से लगातार हो रही उपेक्षा से भगाना के बलात्कार पीडि़त परिवारों ने इस बार भी दिल्ली गुहार लगाई है. वे गांव में वापस नहीं जाना चाहते. किशोरियों का आरोप है कि जाट युवक अकसर उनके साथ छेडख़ानी और परेशान किया करते थे. इसी वजह से उन्हें अपनी पढ़ाई भी बंद करनी पड़ी थी. नाबालिग पीडि़ता की मां कहती हैं, ''हम तो बच्चों को बाहर भी पढ़ाने नहीं भेज सकते. वे आते-जाते भी उन्हें रोक कर परेशान किया करते हैं. आखिर हम गरीबों की कौन सुनता है. पीडि़त उचित मुआवजा, पुर्नवास, और किशोरियों की पूरी शिक्षा की गारंटी की मांग कर रहे हैं. 27 अप्रैल को जंतर-मंतर से जेएनयू के छात्रों समेत कई सामाजिक संस्थाओं ने गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के घेराव के लिए बड़ा प्रदर्शन किया. पीडि़तों की ओर से हरियाणा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ नारेबाजी से जंतर-मंतर गूंज रहा था. पीडि़तों के प्रतिनिधिमंडल की मुलाकात गृहमंत्री से भी कराई गई लेकिन उन्हें कोरे आश्वासनों के अलावा कुछ न मिला. 29 अप्रैल को आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता योगेंद्र यादव भी जंतर-मंतर पहुंचे और उन्हें आश्वासन दिया. ये वही योगेंद्र यादव हैं जो हरियाणा के खाप पंचायतों की प्रशंसा कर चुके हैं. खुद इनके मुखिया अरविंद केजरीवाल उसी हरियाणा के हैं. इसे और अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि पीड़ितों ने बताया कि योगेंद्र यादव ने ये कहा कि वे मामले को देख-समझ कर बताएंगे. यानी अपने स्तर के देख-जांच कर बताएंगे. क्या दिल्ली गैंग रेप की घटना के बाद आम आदमी पार्टी या राजनैतिक दलों को अपनी स्तर से जांच करने की जरूरत पड़ी थी? फिर यहां क्यों पड़ रही है. दरअसल ये लोग पहले ये जांच-परख लेगें कि पीड़ितों के समर्थन में आने पर उनका कितना नफा-नुकसान होगा. जाहिर है उनका इरादा क्या है. पीडि़त परिवारों को इस बात का डर कायम है कि कहीं उनका हाल भी पिछली बार की तरह ना हो जाए, जहां अभी तक इंसाफ बाट जोह रही है. आखिर दिल्ली अब मौन क्यों है?
 
दिल्ली में जंतर-मंतर पर भगाणा के दलितों का प्रदर्शन
लेकिन आखिर संघर्ष का रूप क्या हो
ऊपर की तमाम बातों, संघर्षों और स्थितियों को आखिर किस राह की ओर जानी चाहिए. अभी जो दिल्ली में दलित लड़कियों के इंसाफ के लिए जो आंदोलन चल रहा है, इसमें अगर इन पीड़िताओं को उचित मुआवजा, बेहतर भविष्य के लिए एजुकेशन की गारंटी और पीड़ित परिवारों के लिए पुर्नवास की सुविधा मिल जाती है तो क्या संघर्ष की जीत होगी. एक हद तक तो हां कहा जा सकता है. यह इसलिए भी कि अगर भगाणा के पीड़ितों को इंसाफ मिलता है तो इससे हरियाणा में रह रहे दलितों को हौसला मिलेगा और इससे वे संघर्ष के लिए प्रेरित होंगे. संघर्ष की सामाजिक चेतना का विकास होगा. लेकिन नहीं, सिर्फ यही व्यापक बदलाव या बुनियादी स्तर के बदलाव के लिए जरूरी नहीं है. दरअसल जैसा कि मैं ऊपर दोहरा चुका हूं कि राजनैतिक चेतना, दलितों की राजनैतिक अपनी खुद की जमीन का यह मामला है. और यही बनाना लक्ष्य होना चाहिए, जैसा कि बड़े हद तक कांशीराम ने किया था और यूपी में दलितों की अपनी राजनैतिक जमीन बन चुकी है. ठीक ऐसी ही मजबूत राजनैतिक जमीन हरियाणा में बननी चाहिए. भारतीय लोकतंत्र के ढांचे ने मुताबिक यही सबसे उपयुक्त रास्ता भी होगा. राजनैतिक भागीदारी और राजनैतिक ताकत जरूरी है चाहे स्थानीय राजनीति की भूमिका में या फिर केंद्रीय राजनीति की भूमिका में. हरियाणा में तभी दलितों की स्थिति में मूलभूत परिवर्तन होंगे. इसलिए यह संघर्ष केवल इन पीड़ितों भर का मामला नहीं है. 

 -सरोज कुमार

Monday 26 November 2012

क्या अदालत घाट छठ की दर्दनाक घटना को भूल गए आप....?



भगदड़ के बाद जान गवां चुके बच्चे और बिलखती महिला( तस्वीर जनज्वार से साभार)

 : दिन पहले पटना के अदालत घाट पर मरे हुए कम से कम 19 लोगों को आप भूल गए होंगे। ऐसी घटनाएं होती रहती हैं जो महज हादसा होतें है, क्या किया जा सकता है! जी हां बिहार के मुख्यमंत्री उर्फ सुशासन बाबू भी यहीं कह रहे हैं कि यह एक हादसा था जो कभी भी कहीं भी हो सकता है। तो ईश्वर को यहीं मंजूर था या भीड़ अनियंत्रित हो ही जाती है कभी-कभी, ये कहकर इसे भूल जाना चाहिए! अमूमन ऐसी घटनाएं दुर्घटनाएं घोषित हो ही जाती हैं और साथ ही सबसे आसान होता है अफवाहों को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा देना। जी हां तो इस छठ में अदालत घाट में मारे गए 19 लोगों को हमें भूल जाना चाहिए। हमें भूल जाना चाहिए कि मरने वालों में ज्यादा बच्चे थे और इन बच्चों में 2 साल, 4 साल और 6 साल के मासूम भी थे। कल फिर कहीं भी कभी भी ऐसे हादसे हो ही जाएंगे। कमबख्त भीड़ का किया भी क्या जा सकता है। हमें भूल जाना चाहिए कि अदालत घाट पर हजारों लोगों की सुरक्षा के लिए केवल सात सरकारी बाबू तैनात थे। एक दंडाधिकारी, एक पुलिस अधिकारी और पांच लाठीधारी सिपाही। हमें ये भी भूल जाना चाहिए कि जब घायल मासूम बच्चों को लेकर लोग मात्र पांच मिनट की दूरी पर स्थित बिहार के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल पीएमसीएच में दौड़ पड़े थे तो वहां के सारे डॉक्टर नदारद थे। हमें भूल जाना चाहिए कि जिनकी सांस चल रही थी उन्हें भी मृत घोषित कर दिया जा रहा था। और हमें ये भी भूल जाना चाहिए कि जिस चचरी के पुल के धंसने की बात सामने आई है वह सैंकड़ों लोगों को एक साथ आने-जाने के लिए कमजोर थी। हमें भूल जाना चाहिए कि प्रशासिनक अधिकारियों को पहले से बांस के बने चचरी पूलों के कमजोर होने का अहसास था और इनके निरीक्षण के आदेश भी दिए गए थे फिर भी चचरी के पुलों को यों ही छोड़ दिया गया। हमें ये भी भूल जाना चाहिए कि कई दिनों से राज्य के उपमुख्यमंत्री से लेकर विधायक, बड़े से लेकर छोटे स्तर के प्रशासनिक अधिकारियों की मीडिया में बयान और तस्वीरें आ रही थी घाटों के निरीक्षण की कि सब दुरुस्त है और किसी भी स्तर के अधिकारी का ध्यान ना तो पुलों पर गया ना ही संकरी गलियों पर जिससे की हजारों लोगों को लगातार आना-जाना था। तो हमें एक हादसा समझ कर भूल जाना चाहिए इन सारी चीजों को। भूल जाइए। वैसे भी एक दिन बाद ही कसाब की फांसी की खबर ने तो सत्ता से लेकर मीडिया तक को मौका दिया ही कि आप भूल जाएं छठ की घटना। तथाकथित राष्ट्रवादी लोग जो ठाकरे के मरने का मातम मना रहे थे और छठ की घटना पर शोक में थे, कसाब की फांसी पर जश्न मनाने ही लगे। तो आप कसाब-कसाब खेलते रहिए। इधर सुशासन बाबू भी सब भूल कर अपने शासन(?) की उपलब्धियां गिनाने लगे हैं। बिक चुके अखबार अपने पन्ने सुशासन बाबू के इंटरव्यू से भर रहे हैं कि देखिए क्या-क्या महान काम कर के बैठे हैं नीतीश कुमार। दलाल पत्रकार गला चीख-चीख कर विकास-विकास चिल्ला रहे हैं और आप भी सब भूल कर देखिए विकास में बिहार उड़ा जा रहा है। विकास बाबू फारबिसगंज भूल गए हैं, इंसेफेलाइटिस से मरते बच्चे भूल गए हैं, महिलाओं के धोखे से गर्भाशय निकाला जाना जैसी घटनाएं उन्हें बड़ी घटना क्यों लगेगी? वे लड़कियों के साथ रोजाना हो रही हिंसा और बालात्कार की घटनाओं से ऊपर उठ गए हैं। दलितों-आदिवासियों के मारे जाने, उनकी बेटियों को तेजाब से जलाया जाना उन्हें देखने की फुर्सत है क्या? उन्हें तो बस विकास चाहिए वे भला ये क्यों याद रखें। रिपोर्ट कार्ड जारी हो रहा है। तो आप भी भूल जाइए छठ हादसा जैसी घटनाएं। खैर भूलने से पहले मैं आपके भूलने में खलल डालना चाहता हूं।

अफवाहें हैं अफवाहों का क्या
सरकार और प्रशासन छठ की घटना के लिए मुख्य रुप से अफवाहों को जिम्मेदार बता रही है। इनका कहना है कि बिजली के करंट दौड़ने की अफवाह इसके लिए ही जिम्मेदार है। न यह अफवाह फैलता न भगदड़ मचती न लोग बदहवास होते न कोई संकरी गली में दम घुटने से मरता। अफवाह होते ही एक फोन कॉल स्थानीय बिजली सब स्टेशन में गया करंट दौड़ने का जिसके बाद तुरंत वहां की बिजली कुछ ही मिनटों के लिए काटी गई और अंधेरे के कारण इतना बड़ा हादसा हो गया। जिस पीपा पुल की बात बार-बार आ रही है उस पर बिजली विभाग का कोई कनेक्शन है ही नहीं, ना ही चचरी के पुल की ओर है। तो बिजली कटने का असर केवल गली में होना चाहिए। जबकि करंट फैलने की अफवाह पीपा पुल की कही जा रही है। ठीक माना भी जाए कि बिजली चली जाने से अंधेरा कायम हुआ तो इसका असर केवल गली में होगा। खैर एक बात और कि घाट और पीपा पुल, चचरी के पुल से लेकर बालू की ओर जनरेटर सप्लाई से बिजली दी गई थी। तो फिर केवल बिजली विभाग की लाइट जाने का मामला नहीं बनता। अफवाह ये भी फैलाई गई कि पीपा पुल पर ही किसी महिला से छेड़खानी होने पर भगदड़ मची। कोई महिला पुल से नीचे गिरी और उसे बचाने में कोई युवक जेनरेटर के तारों के बीट फंस गया, इसी के बाद करंट फैलने की अफवाह मची। चचरी पुल के धंसने को भी सरकार साइड में कर रही है लेकिन ये सबको मालूम है कि चचरी का पुल धंसा जरुर था। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार चचरी का पुल धंसते के बाद ही भगदड़ मचा था।
      खैर अगर सरकार अफवाहों को ही जिम्मेदार मान रही है तो कुछ बातें और भी लोगों के बीच मौजूद हैं क्या इनकी ओर ध्यान नहीं डाला जाना चाहिए? ये केवल अफवाह हैं या और कुछ भी? वैसे इन्हें अफवाह ना कह कर लोगों की प्रत्यक्षानुभूति भी कहा जा सकता है। माना तो ये भी जा रहा है कि ठीक उसी दौरान सुशासन बाबू को गांधी घाट पर एक छठ के कार्यक्रम में जाना था। अब इसी रास्ते से इन्हें गुजरना था तो भला सिक्योरिटी का ध्यान और कहां रहता। सारा का सारा प्रशासनिक महकमा सुशासन बाबू की आगवानी में भाग खड़ा हुआ। नतीजा ये रहा कि अदालत घाट की ओर निष्क्रियता ही नहीं रही बल्कि इस ओर की आवाजाही भी प्रभावित हो गई। लोगों को जाम कर दिया गया और लोग संकरी गली में फंस कर मारे गए। जी हां इस आधार पर मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री सिहत कई उच्च अधिकारियों पर न्यायालय में एक मामला भी दर्ज हुआ। एक प्रत्यक्षदर्शी पटना के लोहानीपुर निवासी प्रो. किशोरी दास ने कहा है कि जब वे इस दौरान अर्ध्य देकर लौट रहे थे तो वीआईपी कारवां गुजरने की बात कह कर सुरक्षाकर्मियों ने घाट की सीढ़ी पर ही रोक दिया, इसी के बाद लोगों के बीच भगदड़ मच गई। अब जब अफवाहों पर बात सरकार कर ही रही है तो फिर इस बात को भी जरुर ध्यान में लिया जाना चाहिए। है कि नहीं? भले ही न्यायालय यह मामला रिजेक्ट कर दे, इससे इंकार करने का भी तर्क होना चाहिए जब आप अफवाहों को जिम्मेदार ठहरा रहे ही हैं।
दूसरी बात ये भी कही जा रही है कि अदालत घाट पर ही हादसे के कुछ ही घंटे पहले वहां व्यवस्था( बैनर वगैरह को लेकर) पर धौंस जमाने के लिए जदयू मंत्री श्याम रजक और भाजपा विधायक नीतीन नवीन के बीच झगड़ा भी हुआ था। वहां भाजपा विधायक अरुण कुमार सिन्हा और भाजपा समर्थक पूर्व महापौर संजय कुमार भी मौजूद थे। संजय कुमार से भी बहस हुई थी। यहां तक कि दोनों ओर के कार्यकर्ताओं के बीच हाथापाई की बात भी कही जा रही है। अब क्या इन चीजों पर भी जांच होनी चाहिए। वैसे भाजपा विधायकों पर सुशासन बाबू के कृपापात्र पत्रकारों ने सवाल जरुर उठाया है कि ये स्थानीय विधायक घटना के समय अपने इलाके के अदालत घाट से क्यों गायब रहे। अब जदयू के श्याम रजक पर सवाल क्यों नहीं होना चाहिए जबकि यह सर्वविदित है कि अदालत घाट और इस इलाके के आयोजनों का काम श्याम रजक के समर्थक ही करते हैं। यह इलाका श्याम रजक का ही माना जाता है। जब आयोजन का जिम्मा इनके समर्थक ही देखते हैं तो फिर जांच या उत्तरदायित्व के घेरे में इन्हें क्यों ना रखा जाए? और रही बात जनता के बीच तैर रही अन्य बातों का तो कहा तो ये भी जा रहा है कि श्याम रजक समर्थक इलाके के लोग (समर्थक) ही पीएमसीएच में पीड़ितों के हंगामा में शामिल हो उन्हें तितर-बितर करने में प्रशासन का सहयोग करते रहे। और ये ही लोग अदालत घाट पर महिलाओं से छेड़खानी में भी व्यस्त रहे थे। तो फिर अफवाहें हैं अफवाहों का क्या।

 और क्या-क्या नहीं भूला जा सकता...क्या-क्या अफवाह नहीं....
यह जरुर हो सकता है कि कुछ मिनट के लिए गली की ओर बिजली गई हो। लेकिन क्या सबकुछ का ठीकरा केवल इसी पर फोड़ा जाना चाहिए। यह पूरी तरह सर्वविदित है कि छठ जैसे पर्व पर बिहार की जनता की आस्था उफान मारती रहती है। भीड़ की क्या कहिए हजारों लोग अपने बच्चों सहित घाटों पर जाते हैं। अदालत घाट पर तो पटना के बड़े इलाके के लोग आते हैं। हजारों की भीड़ का आना-जाना होता है। ऐसे में केवल सात सुरक्षाकर्मियों के जिम्मे हजारों लोगों की भीड़ को कंट्रोल करना या व्यवस्था बनाने के लिए छोड़ना किस सोच के तहत किया गया था। बांस के बने अस्थायी चचरी के पुलों को अधिकारी पहले ही खतरनाक मान कर चल रहे थे, इस बाबत डीएम ने इनके निरीक्षण का लिखित आदेश भी दिया था। फिर इन चचरी के पुलों की ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया। क्या किसी भी स्तर के प्रशासनिक अधिकारी का ध्यान इस ओर नहीं गया कि हजारों लोगों का आना-जाना बांस का बना पुल कैसे झेलेगा या कितना झेलेगा?
हादसे के बाद मातम (तस्वीर पत्रकार प्रैक्सिस से साभार)
       चचरी के पुल के धंसते ही भीड़ घबरा गई और भगदड़ मच गया। इससे बचने के चक्कर में सारी भीड़ पीपा पुल की ओर दौड़ पड़ी। बहरहाल पीपा पुल की ओर भगदड़ का केंद्र हो गया। इससे होकर बाहर निकलने वाला रास्ता बिलकुल ही संकरी लगी थी जहां बदहवासी में लोग फंसे जा रहे थे। एक तो घाट की ओर से लोग बाहर निकलने वाले लोग थे तो दूसरी ओर बाहर की ओर से घाट आ रहे लोग। आलम ये हुआ कि सैंकड़ों लोग गली में ही अपने बच्चों के साथ फंस गए। इसी बीच अगर करंट की अफवाह और बिजली गई तो हाल और भी भीषण हो गया। तिस पर वहीं स्थित मंदिर के कर्ताधर्ताओं ने मंदिर का दरवाजा भी बंद कर लिया गया जिससे लोग गली में और पुल की ओर ही फंस कर रह गए। वो तो भला हो स्थानीय मकान वालों के जिन्होंने बच्चों को अपने दरवाजे-खिड़कियों से खिंच कर बचाने की कोशिश की। साथी पीएमसीएच का एक छोटा-सा दरवाजा खोल दिया जिससे कि कई कुछ रास्ता मिला वरना कई और जानें जा सकती थी। केवल एक बात समझ में नहीं आती कि घाट की ओर पीपा पुल और चचरी के पुल के पार गंगा की ओर बहुत बड़ा खाली बालू का क्षेत्र था फिर भी लोग उस ओर न जाने कर संकरी गली की ओर ही क्यों भागे जा रहे थे। संभवत: इसका कारण ये रहा हो कि घाट से तो लोग बदहवासी में अपनी जान पर आफत समझ घबराए हुए बाहर निकलने भागे जा रहे थे वहीं दूसरी ओर बाहर से आ रहे लोग अंदर क्या हुआ से अनजान आए जा रहे थे।
      खैर इतना तो साफ था कि इस दौरान प्रशासन मौजूद ही नहीं रही। डीएम ने घाटों की लगातार पेट्रोलिंग का निर्देश दिया था लेकिन इस ओर कोई नहीं था। ये आदेश महज कागजी रहे। दूसरी की संकरी गली की ओर कोई व्यवस्था थी ही नहीं कि हजारों लोग सही से गुजर सकें। प्रशासनिक लापरवाही का आलम ये था कि घटना की सूचना मिलने के एक घंटे बाद तक कोई भी वरीय अधिकारी घटना स्थल पर नहीं पहुंचा। शायद ये अपनी पूरी फोर्स के साथ महानुभाव सीएम साहब सहित मंत्रियों और वरीय अधिकारियों की पत्नियों का छठ करवाने में व्यस्त थे।
इस तरह के हादसों से बचने या नुकसान कम होने के लिए जरुरी होता है कि हमारे पास सही रेस्कयू की व्यवस्था हो या प्रशासन चुस्त रहे। लेकिन यह पूरी तरह से निष्क्रिय था। प्रशासनिक लापरवाही का सबसे बड़ा उदाहरण तो बिहार का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल पीएमसीएच रहा। हादसे के तुरंत बाद लोग बच्चों को गोद में उठाए केवल पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित पीएमसीएच दौड़ पड़े थे लेकिन निष्क्रियता का आलम ये था कि अधीक्षक, वरीय डॉक्टरों के साथ-साथ जूनियर डॉक्टर और कर्मचारी भी नदारद थे। सारे अस्पताल कर्मचारी गायब थे। एक-दो जुनियर डॉक्टर और कर्मचारी थे भी तो डर के मारे थोड़ी ही देर में चुपके से निकल गए। महिलाओं और बच्चों की लाशें फर्श पर लिटा दी गई थी। एक- दो डॉक्टर जो थे उन्होंने सांस चल रहे जीवितों को भी मृत घोषित कर दिया गया। मानती देवी नामक एक महिला की सांस चल रही थी फिर भी उसे मरा कह दिया गया, लेकिन उनकी बहन के हंगामा करने पर दुबारा उसे पंप किया गया और थोड़ी देर में उसकी मृत्यु हो गई। इसी तरह दो बच्चों के शव शवगृह में ताला बंद कर गार्ड भाग गया। परिजनों के हंगामा करने और शीशा तोड़ने का बाद शव दिखलाया गया। इस तरह से लापरवाही पर लापरवाही बरती गई। लाशें छिपाने की कोशिश भी होती रही। इतने देर में डीजीपी अभयानंद. सिटी एसपी वगैरह वरीय अधिकारी आ गए और हंगामा को दबाने के लिए शवों और घायलों को शहर के दूसरे असपतालों में भेजने लगे। पुलिस ने लाठियां चटकाईं और पीएमसीएच के साथ आसपास हंगामा कर रहे परिजनों और लोगों तो तितर-बितर कर दिया।
इधर अदालत घाट पर भी प्रशासन ने लापरवाही छिपाने की कोशिश में न केवल धंसे हुए पुल को रातोंरात हटवा दिया बल्कि पास में ही स्थित एक अन्य चचरी के पुल की मरम्मत करवा दी।

 अब शुरु हुआ राजनीतिक खेल...
पहले दिन से ही सुशासन बाबू से लेकर के सरकार के बड़े-बड़े नेता, प्रवक्ता ये कहते रहे कि यह हादसा अफवाह का नतीजा है और विपक्ष इसपर शर्मनाक तरीके से हाय-तौबा मचा रहा है। छठ की छुट्टी के बाद निकलते ही कलते ही अब इतनी बड़ी घटना पर विपक्ष सरकार पर उंगली भी न उठाए तो क्या आरती उतारे। शर्मनाक तरीके से तो सरकार औऱ प्रशासन बर्ताव करते रहे। सरकारी दलाल पत्रकार भी मधुबनी की घटना की तरह इसे भी अफवाह से जोड़ते रहे और छापते रहे कि एक बार फिर अफवाह जीत गई। हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण और प्रभात खबर जैसे सारे अखबार अफवाहों पर ही विशेषरुप से ध्यान दिलाते रहे। कुल मिला कर सरकार की योजनाओं पर उंगली उठाने की बजाय केवल अफवाह पर सारे सवाल केंद्रित कर दिए गए।
    पहले ही दिन से सरकार की चाल ही यहीं रही कि मधुबनी की घटना की तर्ज पर अफवाह को जिम्मेदार ठहरा प्रशासनिक योजनाओं का ना होना छिपाया जा सके। इसी लिए सबकुछ अफवाह पर ही फोकस किया गया। क्या लापरवाही बरतने को लेकर किसी भी अधिकारी या पीएमसीएच के वरीय पदाधिकारी पर तत्काल कोई कार्यवाई हुई? दरसल सबकुछ सारी नाकामियां और बदइंतजामी को हवा में उड़ाने के लिए गृह विभाग का सचिव के नेतृत्व में जांच टीम बैठा दी गई जो इसकी जांच कर रही है। जांच में जो कुछ सामने आएगा उसके आधार पर कार्यवाई की बात कही जा रही है। लेकिन इस पूरी जांच का मकसद ही है प्रशासनिक लापरवाही को कम फोकस करते हुए अफवाहों को जिम्मेदार ठहरा देना। जांच के नाम पर कुछ प्रत्यक्षदर्शियों और पीड़ितों से बातचीत की बात सामने आ रही है। वहीं पहले दिन ही अदालत घाट के स्थानीय लोगों ने कहा कि उन्हें कुछ पता भी नहीं कि ऐसा कुछ जांच हो रहा है।
वहीं छठ के पहले डीएम-एसपी ने घाटों की वीडियो रिकॉर्डिंग करने का लिखित आदेश जारी किया था। अब सवाल उठता है कि अदालत घाट की वीडियों रिकॉर्डिंग की गई थी या महज यह कागजी आदेश बना दिया गया था। अगर रिकॉर्डिंग हुई तो जांच की दिशा में इसकी बात क्यों नहीं की जा रही है क्योंकि इससे तो पता चल ही जाएगा कि कैसे-कैसे क्या हुआ था। या फिर रिकॉर्डिंग किया ही नहीं गया तो फिर संबंधित अधिकारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए।
       कोशिश बस यहीं है कि प्रशासनिक लापरवाहियों निष्क्रियता को छिपाते हुए उच्च अधिकारियों को बचाते हुए सरकार की किरकिरी होने से बचाया जा सके। अगर अधिकारियों पर कार्रवाई होती भी है तो क्या इन चीजों से नहीं पता चलता कि सरकार ने बिहार के सबसे बड़े पर्व की कोई तैयारी न की थी और ना ही लोगों की सुरक्षा के लिए कोई योजना बनाया था। और अगर कुछ तैयारियां थी भी तो विकास की तरह केवल कागजी।
       इधर एक दिन बाद ही कसाब की फांसी ने मीडिया के द्वारा जनता का ध्यान भटकाने में सहायता कर ही दी। अब सरकार ने अपने कार्यकाल की उपलब्यधियां गिनाना शुरु कर दिया है। अखबारों के पन्ने रंगे जा रहे हैं। जनता को सबकुछ भूल विकास-विकास चिल्लाने कहा जा रहा है। सरकरा चाहती है जनता सबकुछ भूल जाए। यह यों ही नहीं है कि सरकार ने अब रिपोर्ट कार्ड जारी करना शुरु कर दिया है। पिछले महीनों से अधिकार यात्राओं से लेकर बढती आपराधिक घटनाओं को लेकर सरकार की जो किरकिरी हो रही थी जरुरी था कि तथाकथित सुशासन की बातें दुहराई जाए। अखबरों में सुशासन बाबू के इंटरव्यू लिखते दलाल पत्रकारों को लॉ एंड आर्डर की सबसे बड़ी समस्या खगड़िया की घटना लग रही है जब सुशासन बाबू को जनता के गुस्से का शिकार होना पड़ा था। उन्हें मधुबनी की घटना लगी थी जब प्रशासनिक विरोध में बेशक अफवाह के साथ ही आगजनी हुई थी। इन दलालों और सुशासन बाबू को लॉ एंड ऑर्डर की समस्या ना तो रोज महिलाओं के साथ रोज हो रहे बालात्कार और हत्याएं, दलितों-आदिवासियों का मारा जाना लग रहा है ना ही राजधानी में रोज होती हत्याएं। इनको प्रशासनिक लापरवाही से छठ जैसे बड़े हादसे भी समस्या नहीं लग रहे। ना ही फारबिसगंज जैसे दमनात्मक कांड या ब्रह्मेश्वर मुखिया समर्थकों का राजधानी में हुआ नंगा नाच। डैमेज कंट्रोल के तहत ही सुशासन की उपलब्धियों के साथ ही कागजी रिपोर्ट कार्ड अखबारों में जारी किया जा रहा है। नीतीश और सरकार की छवि को जो नुकसान हुआ है, उसे बचाने की कोशिश है यह।
        बहरहाल सुशासन की सरकार चाहती है कि आप भूल जाएं सब और केवल तथाकथित विकास में डूबे रहें। आप विकास को अखबारों के पन्नों पर छपते देखते रहे। जो इस कागजी विकास का विरोध कर रहा है वह सही आदमी नहीं है। वह बिहार का विकास नहीं देख पा रहा। अफवाहों से बिहार का भयमुक्त माहौल बिगाड़ने की कोशिश हो रही है। कानून व्यवस्था को अफवाहों से बाधित किया जा रहा है। यहीं सब कहना है सुशासन बाबू का। वाह सुशासन बाबू वाह... क्या खूब कह रहे हैं आप....अफवाहों के जरिए ही महिलाओं पर तेजाब फेंका जा रहा है, बालात्कार की घटनाएं रोज आ रही हैं, राजधानी में हत्याओं का दौर जारी है, अफवाहों से ही छठ जैसे हादसे हो रहे हैं...वाह।
       छठ की घटना में सवाल वहीं है कि क्या हजारों की भीड़ को चंद सुरक्षाकर्मियों के भरोसे छोड़ देना लापरवाही नहीं थी? क्या पीएमसीएच में किसी भी डॉक्टर का न होना कर्तव्यहीनता का अपराध नहीं? संकरी गली पर किसी स्तर के अधिकारी की ध्यान न जाना क्या गड़बड़ नहीं? क्या हादसे के बाद भी अधिकारियों का घंटे भर से ज्याद गायब रहना लापरवाही नहीं ? बहरहाल सारी कोशिशें छठ की दर्दनाक घटना को महज हादसा करार देते हुए प्रशासन और सरकार को साफ बचाने का है जिसमें सरकार कामयाब भी होती दिखाई पड़  रही है। महज 2-2 लाख रुपए मुआवजा बांट कर खानापूर्ति जारी है। सच तो यह है कि न तो कोई सही योजना बनाई गई थी ना ही कोई व्यवस्था थी, सबको छठी मइया के भरोसे छोड़ दिया गया था और जो योजनाएं थी भी वे केवल काजग पर। ऐसे में क्या सबकुछ भूल जाएंगे आप? फिर कहीं इसी तरह का हादसा होगा, होता ही रहता है और महज हादसा समझ कर हम भूलते रहेंगे? वैसे नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में धार्मिक समारोह और निजी समारोहों में भगदड़ का आंकड़ा एक साल में 193 फीसदी बढ़ा है वहीं ऐसे में दम घुटने से होने वाली मौतें 133 फीसदी बढ़ी हैं। 2010 में भगदड़ के 107 मामले हुए थे तो 2011 में बढ़कर 314 मामले। 2011 में भगदड़ से 489 लोग मारे गए थे जिनमें अधिकतर महिलाओं और बच्चे थे। इसी दौरान घुटन से 2013 लोग मारे गए। ऐसी घटनाओं का बड़ा कारण होती है प्रशासनिक उदासीनता या भीड़ संभालने में प्रशासन की नाकामी। अत:  तेजी से भगदड़ के मामले बढ़े हैं और प्रशासनिक लापरवाही चरम पर है। तो ऐसे में आप भूल जाइए छठ की घटना को, जब तक कि किसी और जगह ऐसी और घटना ना हो जाएं!

-सरोज